संभावित सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और जीडीपी में उत्पादन अंतर - एक प्रवेशिका
(स्रोत - अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और भारत का आर्थिक सर्वेक्षण, 2016)
संभावित उत्पादन का संबंध उत्पादन के उस सर्वोच्च स्तर से है जो दीर्घकाल में संधारित किया जा सकता है। यह मान लिया जाता है कि उत्पादन की सीमा का अस्तित्व प्राकृतिक और संस्थागत बाधाओं के कारण होता है। यदि वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद बढता है और संभावित उत्पादन से ऊपर बना रहता है तो (मजदूरी और मूल्य नियंत्रण के अभाव में) मुद्रास्फीति में वृद्धि की प्रवृत्ति होती है क्योंकि मांग आपूर्ति से अधिक होती है। यदि उत्पादन संभावित स्तर से कम होता है तो मुद्रास्फीति धीमी होगी क्योंकि आपूर्तिकर्ता अपनी अतिरिक्त उत्पादन क्षमता की पूर्ति करने के लिए कीमतों को कम करते हैं। अतः संभावित उत्पादन के अनुमान का मुद्दा अर्थव्यवस्था की समग्र मुद्रास्फीति संबंधी गतिकी को समझने की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है।
भारत में मौद्रिक और ऋण नीति का व्यापक रुख यह है कि मूल्य स्तर को नियंत्रित रखते हुए वास्तविक ऋण आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और अर्थव्यवस्था में निवेश मांग का समर्थन करने के लिए पर्याप्त चलनिधि प्रदान करना। मौद्रिक नीति के निर्माण में एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह निर्धारित करना है कि अर्थव्यवस्था अपने अधिकतम धारणीय स्तर से नीचे परिचालित हो रही है या ऊपर परिचालित हो रही है। अधिकतम धारणीय स्तर का मार्ग, जिसे आम भाषा में संभावित उत्पादन कहा जाता है, यह संकेत प्रदान करता है कि उत्पादन का स्तर स्थिर मूल्य स्तर से सुसंगत है।
दूसरे शब्दों में, संभावित उत्पादन वह अधिकतम उत्पादन है जिसका उत्पादन अर्थव्यवस्था कीमतों पर अतिरिक्त दबाव बनाए बिना कर सकती है। यह उत्पादन का वह स्तर है जिसपर अर्थव्यवस्था की कुल मांग और कुल आपूर्ति संतुलित है ताकि यदि अन्य कारक स्थिर बने रहते हैं तो मुद्रास्फीति उसके दीर्घकालीन अपेक्षित मूल्य पर बनी रहे। एक बार यदि संभावित (सक्षम) उत्पादन का अनुमान कर लिया जाए तो क्षमता उपयोग की दर उत्पादन के संभावित स्तर के साथ उत्पादन के वास्तविक स्तर के अनुपात के रूप में निर्मित की जा सकती है। क्षमता उपयोग आमतौर पर उत्पादन फलन के पूर्ण निविष्टि बिंदु के अनुरूप होता है जिसमें शर्त यह है कि क्षमता एक दिए गए उद्योग के लिए वास्तविक रूप से धारणीय अधिकतम स्तर का प्रतिनिधित्व करती है, न कि किसी अधिक उच्च अधारणीय अल्पकालिक अधिकतम का।
उत्पादन अंतर, जो संभावित उत्पादन और वास्तविक उत्पादन के बीच का अंतर है, अर्थव्यवस्था में असंतुलन को इंगित करता है। जब वास्तविक उत्पादन संभावित उत्पादन से अधिक होता है, अर्थात, उत्पादन अंतर धनात्मक हो जाता है, तो यदि अस्थाई आपूर्ति के कारक स्थिर हैं, तो बढती हुई मांग का परिणाम मूल्य वृद्धि में होता है। इस प्रकार की घटनाओं को स्फीतिकारक दबावों के स्रोत के रूप में देखा जाता है और यह केंद्रीय बैंक के लिए संकेत होता है कि वह मौद्रिक नीति को कठोर बनाए। ऋणात्मक उत्पादन अंतर् के मामले में मुद्रास्फीति की प्रवृत्ति गिरने की होती है। अतः संभावित उत्पादन का विचार अर्थव्यवस्था की मुद्रास्फीति गतिकी की प्रक्रिया को पकडने की दृष्टि से अनिवार्य है। हालांकि संभावित उत्पादन को प्रत्यक्ष रूप से नहीं देखा जा सख्त अतः इसका अनुमान करने की आवश्यकता होती है।
संभावित उत्पादन और मुद्रास्फीति : वैकल्पिक विचार
यदि वास्तविक उत्पादन में भविष्य में तेजी से वृद्धि होती है तो दुर्लभ उत्पादक संसाधनों के लिए होने वाली प्रतिस्पर्धा मजदूरी और अन्य उत्पादन लागतों को बढाने का दबाव बना सकती है और अंततः मुद्रास्फीति में वृद्धि हो सकती है। अधिकांश आर्थिक भविष्यवक्ताओं का मानना है कि स्फीतिकारक दबाव तब बढता है जब संभावित उत्पादन एक निश्चित स्तर से ऊपर बढ जाता है। हालांकि कुछ विश्लेषकों ने दावा किया था कि यह ऐतिहासिक संबंध अब अधिक प्रासंगिक नहीं रह गया है क्योंकि वर्तमान अर्थव्यवस्थाएं अब अधिक खुली हो गई हैं और घरेलू उत्पादन क्षमता की किसी भी न्यूनता की पूर्ति वस्तुओं के आयात के माध्यम से की जा सकती है। आमतौर पर मुद्रास्फीति के दबाव तब उठते हैं जब वस्तुओं और सेवाओं की समग्र मांग में आपूर्ति की तुलना में अधिक तेजी से वृद्धि होती है, जिसके कारण अप्रयुक्त उत्पादक संसाधनों की मात्रा में कमी होती है या अधिकतर बेरोजगारी की दर के माध्यम से निर्मित हुई आर्थिक मंदी होती है, जो श्रम बाजार में अप्रयुक्त संसाधनों की गणना करती है। स्फीतिकारक दबावों का अंदाज एक अनुमानित स्थिर मुद्रास्फीति दर के साथ वर्तमान क्षमता उपयोग की तुलना करके लगाया जा सकता है। जब क्षमता उपयोग स्थिर मुद्रास्फीति दर पर होता है तो मुद्रास्फीति में न तो वृद्धि होती है और न ही कमी होती है। यह अवधारणा प्राकृतिक बेरोजगारी की दर की अवधारणा के ही समान है, बेरोजगारी की वह दर जिसके लिए मुद्रास्फीति में न तो वृद्धि होती है और न ही कमी होती है, परंतु यह अवधारणा आर्थिक मंदी की गणना के लिए बेरोजगारी के स्थान पर क्षमता उपयोग के साधन का उपयोग करती है।
कुछ विश्लेषकों का दावा है कि अब संभावित उत्पादन स्फीतिकारक दबावों का कम विश्वसनीय संकेतक बन गया है। इसके आलोचकों का मानना है कि मुद्रास्फीति के संकेतक के रूप में संभावित उत्पादन मौद्रिक नीति निर्माण और स्फीतिकारी प्रक्रिया के वर्णन को आवश्यकता से अधिक सरल बनाने का प्रयास करता है। उदाहरणार्थ 14 फरवरी 1995 को वॉलस्ट्रीट जर्नल में प्रकाशित एक लेख में यह इंगित किया गया है कि मौद्रिक नीति मुद्रास्फीति के संकेतक के रूप में क्षमता उपयोग के उपयोग द्वारा निर्देशित नहीं होनी चाहिए। यह भी तर्क दिया जाता है कि व्यवहार में, संभवतः क्षमता उपयोग और समग्र मुद्रास्फीति दर के बीच कोई सामान्य संबंध अस्तित्व में ही नहीं हो। संसाधन उपयोग के अतिरिक्त मुद्रास्फीति पर पडने वाले अन्य प्रभाव सामान्य रूप से आर्थिक मॉडल्स में दिखाई देते हैं। अन्य देशों में होने वाले आर्थिक विकास और विनिमय दर के उतार-चढाव घरेलू मुद्रास्फीति को आयातित वस्तुओं के मूल्यों में परिवर्तनों के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर सकते हैं, और घरेलू रणनीतिक मूल्य निर्धारण व्यवहार पर प्रतिस्पर्धात्मक वस्तुओं के प्रभावों के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर सकते हैं। अतः मांग के दबाव को इंगित करने वाले परिवर्ती संकेतक के रूप में संभावित उत्पादन के उपयोग की अपनी सीमाएं हैं।
सामान्यतः अर्थशास्त्री किसी अर्थव्यवस्था के संभावित सकल घरेलू उत्पाद की गणना दो पद्धतियों से करते हैं :पहला, पिछली वृद्धि से बहिर्वेशन द्वारा ; और दूसरा, वृद्धि के अंतर्निहित उत्प्रेरकों के अनुमान द्वारा : पूँजी (भौतिक और मानवी), श्रम, और उत्पादकता। इन दोनों पद्धतियों की अपनी सीमाएं हैं और ये दोनों पद्धतियां अनेक मान्यताओं पर निर्भर रहती हैं। पहली पद्धति में अनेक रूपांतर हैं जिनमें हॉड्रिक-प्रेस्कॉट निष्यंतक (फ़िल्टर) भी शामिल है। परंतु ये सभी अनिवार्य रूप से यांत्रिक हैं और वास्तव में पूर्व की वृद्धि के कुछ भारित औसत हैं। इस पद्धिति का एक दोष यह है कि वास्तविक वृद्धि के परिवर्तन संभावित वृद्धि के अनुमानों में व्यापक अस्थिरता को प्रेरित कर सकते हैं। परंतु जब तक आधारभूत नीति और संस्थागत वातावरण में बुनियादी परिवर्तन न हों तब तक संभावित वृद्धि अपेक्षाकृत स्थिर होनी चाहिए।
वृद्धि के आधारभूत निर्धारकों के अनुमान के द्वारा संभावित सकल घरेलू उत्पाद का अनुमान लगाने के लिए (जैसा रॉड्रिक और सुब्रमण्यम के "व्हाय इंडिया कैन ग्रो एट 7 परसेंट अ ईयर ऑर मोर", इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली, 2005 में किया गया है), घटक उत्पादकता वृद्धि पर कुछ मान्यताएं आवश्यक हैं, जो तब तक मनमानी हो सकती हैं जब तक कि वे भी पूर्व प्रदर्शन पर आधारित न हों, जिसके कारण ऊपर दी गई समस्याएं निर्मित हो सकती हैं।
संभावित सकल घरेलू उत्पाद का अनुमान लगाने की एक अन्य विधि है एक गहरी निर्धारक-और-अभिसरण रूपरेखा। इसका एक व्यवस्थित रूप से स्थापित साहित्य है (नॉर्थ, डी, "इंस्टीट्यूशन्स", जर्नल ऑफ इकोनॉमिक पर्सपेक्टिव्स,[1991], एकमोग्लू,डी, एंड जे. ए. रॉबिंसन, "व्हाय नेशन्स फेल : द ओरिजिन्स् ऑफ पॉवर, प्रोस्पेरिटी एंड पॉवर्टी", क्राउन बिजनेस [2012]) जो बताती है कि संस्थाएं दीर्घकालीन वृद्धि का महत्वपूर्ण निर्धारक है। नीचे इसका सारांश दिया गया है।
चित्र में दर्शाई गई ऊपर की ओर झुकी हुई रेखा राजनीतिक संस्थाओं और आर्थिक विकास के बीच एक सशक्त संबंध (औसत पर) को प्रतिबिंबित करती है जो अनुभवसिद्ध अनुसंधान में पाया गया है, जो "संस्थाएं मायने रखती हैं" की अवधारणा के केंद्रीय तर्क की पुष्टि करता है। हालांकि चीन और भारत इस रेखा से बाहर हैं। (ये दोनों बेस्ट फिट रेखा से काफी दूर हैं) और दिलचस्प बात यह है कि इनमें से प्रत्येक देश इस संबंध की दृष्टि से विपरीत दिशा में एक अपवाद है, या एक चुनौती है। भारत (जो रेखा से काफी नीचे है) अपनी निर्विवाद जीवंत राजनीतिक संस्थाओं की दृष्टि से पर्याप्त समृद्ध नहीं है। चीन (जो रेखा से काफी ऊपर है), अपनी कमजोर लोकतांत्रिक संस्थाओं की दृष्टि से अत्यधिक समृद्ध है।
धारणा यह है कि भारत और चीन मध्य की ओर पूर्ववत होंगे, अर्थात वे अधिक प्ररूपी बन जाएंगे और मध्यम अवधि के दौरान सर्वोत्तम योग्य की दिशा में बढेंगे। मध्य प्रत्यावर्तन अनेक तरीकों से हो सकता है। चीन के लिए अवधारणा यह है कि इसकी "सामान्य" देश बनने की प्रक्रिया धीमी वृद्धि और अधिक तेज लोकतांत्रिकीकरण के संयोजन के माध्यम से होगा जैसा कि अगले चित्र में दर्शाया गया है। निश्चित ही एक असाधारण रूप से उच्च वृद्धि की अवधि के बाद चीन की वृद्धि में आई मंदी को सामान्यीकरण की प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए। भारत के लिए सामान्यीकरण की प्रक्रिया को वृद्धि के त्वरण का रूप लेना चाहिए जैसा नीचे चित्र में दर्शाया गया है। इस प्रकार, भारत की संभावित वृद्धि का अनुमान स्थितियों की उस स्थिति में वापसी के रूप में किया जा सकता है जहां इसका आर्थिक विकास व्यवस्थित रूप से विकसित राजनीतिक संस्थाओं से सुसंगत हो। प्रश्न यह है कि इस मध्य प्रत्यावर्तन की अंतर्निहित वृद्धि दर क्या है।
सामान्यीकरण की इस प्रक्रिया के दौरान मूलभूत अभिसरण रूपरेखा भारत की संभावित वृद्धि दर के लगभग आकलन के लिए एक रूपरेखा प्रदान करती है। (इस गणना के सरल बीजगणित के लिए तकनीकी परिशिष्ट देखें) अभिसरण के सिद्धांत के अनुसार, भारत की प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर (क्रय शक्ति समता की दृष्टि से) वर्ष 2015 और 2030 के बीच वर्ष 2015 के भारत और अमेरिका के बीच प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के प्रारंभिक स्तर के बीच के अंतर का कोई गुणन होना चाहिए। यह अंतर लगभग 2.2 लॉग बिंदु है। गुणन को अभिसरण गुणक - वह दर जिससे भारत अमेरिका को पकड पाएगा- कहा जाता है। साहित्य से प्राप्त एक यथोचित मानदंड यह है कि यह लगभग 2 प्रतिशत प्रति वर्ष होनी चाहिए, कम से कम उन देशों के लिए जो अभिसारी हो रहे हैं। पूर्व एशियाई देशों का अभिसरण अधिक तेज गति से हुआ जबकि अन्य का अपेक्षाकृत धीमी गति से हुआ।
ऊपर दर्शाए गए आंकड़ों का महत्त्व यह है कि चूंकि भारत ने अब तक अल्प प्राप्ति की है, अतः उसे सामान्य से अधिक तेज गति से अभिसरण करना होगा ताकि वह "सामान्य" रेखा की ओर वापस आ सके। अतः उसका अभिसरण गुणक 2 प्रतिशत से काफी अधिक चाहिए। इन क्रय शक्ति समता आधारित वृद्धि दरों को बाजार विनिमय दर वृद्धि दरों में परिवर्तित करना आवश्यक है। इस अभिसरण गुणक के बारे में वैकल्पिक अवधारणाओं के लिए परिणामी अनुमान नीचे दी गई तालिका में दिए गए हैं।
इस विश्लेषण के आधार पर भारत की मध्यम अवधि वृद्धि संभाव्यता 8 और 10 प्रतिशत के बीच कहीं होनी चाहिए। बेशक यह संभावना (क्षमता) का एक अनुमान है, जो अवसर की भावना को दर्शाता है। परंतु अवसर को वास्तविकता में बदलने के लिए कठोर नीतिगत विकल्प और सहयोगी बाह्य वातावरण आवश्यक होंगे।
Disclaimer : Images taken from the internet and may belong to respective owners (publishers and research houses etc.). All copyrights acknowledged.